अबके मरेंगे तो बदली बनेंगे

Prabhat

9789383968503

Language: Hindi

248 Pages

In Stock!

Price INR: 400.0 Not Available

About the Book

प्रभात हमारे समय में लोकजीवन के विरल कवि हैं। उनकी कविताओं के विविध रंग हैं, लेकिन सबसे गहरा और स्थायी रंग स्मृति, दुःख और मृत्यु का है और शेष जो कुछ है, इन्हीं के बीच है। उनकी कविताओं में गाँव की धूल, मवेशियों, चरवाहों, ग्रामीण स्त्रियों का संघर्ष और प्रेम के दुख इस क़दर घुल-मिल गए हैं कि वे कविताओं से अधिक दृश्य और ध्वनियाँ मालूम होने लगते हैं।  वह किसी प्रकार की कलात्मकता से आक्रांत नहीं हैं। उनके सरोकार अपनी ज़मीन और वहाँ के लोगों की संगत से उपजे हैं, जो कला की चमक-दमक के बजाए संवेदनाओं को महत्व देते हैं। उनकी कविताओं में कोई निश्चित दरवाज़ा नहीं होता। आप उनमें कहीं से भी अनायास दाख़िल हो सकते हैं।


—सपना भट्ट


Prabhat’s is a gentle voice amidst noise, a soothing envelope of human love. He is at once a poet of nuance and rawness.  Overwhelming and insightful.


—Jyoti Shobha


Prabhat is sharp, wistful, gut-wrenching by turns. …For him it is not the usual  ‘personal is political’: in his poetry we see the social as political and the social is all pervasive. He instructs without making us feel so: the world is cruel, it has its moments of poignancy, and there is hope….Empathy and criticality of vision add a distinct lyricism to his voice. At this point the voices  of Waris Shah and Mir Taqi Mir don’t seem very far from us….book to keep, to read in bits and pieces, any page, at any time.


—Nalini Taneja


प्रभात की सघन संवेदना, अपने इलाक़े की अनुगूँजों से भरी तहदार भाषा और सहज लेकिन बारीक और पेचीदा कारीगरी ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया है। इन्हीं में उनकी कविताओं की स्मरणीयता का राज़ है। उनकी पीढ़ी का ऐसा कोई दूसरा कवि दिखाई नहीं पड़ता जिसकी कविताएँ काव्य रसिकों के भीतर इस क़दर रची बसी हों कि बार बार उद्धृत की जाती हों।


—विनोद पदरज


प्रभात ऐसे दस्तकार की लगन से, सादगी ही जिसकी कला का सर्वोपरि गुण हो, कविता लिखते हैं। शब्दों की पूरी मितव्ययिता बरतते हुए, प्रभात दरबदर होते मेहनतकशों और बेदख़ली के शिकार किसानों के, स्त्रियों की पीड़ा, पराजय, उल्लास और जिजीविषा के, जीवन और मृत्यु के पर्वों के, आम जनजीवन के हर्ष और विषाद के, बकरियों, ऊँटों, रेगिस्तानों और ऋतुओं के काव्यात्मक आख्यान रचते हैं। वह बिना लोकवादी हुए लोकजीवन के चित्र रचते हैं और बिना अतीतग्रस्त हुए स्मृतियों और इतिहास का उत्खनन करते हैं तथा उन खनिजों की पहचान करते हैं जो जीवन की अग्रगामी गति के लिए ईंधन का काम कर सकें।  इसी में उनकी आधुनिकता है इसी में देशज-पन। इसी कारण से पुरुषवर्चस्ववादी रूढ़ियों, धार्मिक कट्टरता, जातिभेद जनित बर्बरता और पुनरुत्थानवाद के विरुद्ध प्रभात की सादगी भरी आवाज़ बेहद प्रामाणिक और विश्वसनीय प्रतीत होती है।


—कविता कृष्णपल्लवी


In the book’s last poem, हिन्दी कविता, Prabhat imagines a future in which the distance between Hindi poetry and its reader will disappear and they’ll meet not as acquaintances or even friends but lovers. After reading poems like तारे, ग़ुलेल,  अटकी हुई पतंगें, and कीड़ा , it is perhaps not too far-fetched to say  that the future he imagines may already be here, and his own work played no small role in bringing it about.


—Arvind Krishna Mehrotra


…despite the poet’s obvious nostalgia for less complicated ways of belonging, there is no easy romanticism at work. It is a past with its share of grim realities – festering relationships, impoverishment, loneliness and death.


—Arundhathi Subramaniam


यह कवि आज्ञाकारी, विमर्श सुलभ, स्पर्शकातर, मुख्यधारा कविता लिखने में असमर्थ है। इसका जीवन/ मृत्युबोध इतना संश्लिष्ट है कि जिस तरह के सरलमति बाइनरी समीकरणों पर हिंदी कविता का अधिकांश ‘आलोचना’ व्यापार चलता है, वह उसके लिए अपठनीय है। वह सामाजिकताओं/ निजताओं, लोक/नगर, प्रगति/कला, मनुष्य/मनुष्येतर के सुलभ विरोध या उसके मासूम एकत्व का नहीं, उनके गहरे संश्लेषण का कवि है। उसकी निराशा और आशा के स्रोत निराले हैं।


—गिरिराज किराड़ू


वे अकेले ऐसे कवि हैं जो अपनी ज़मीन, आब-हवा से इतनी विलक्षण अनुभूति हमारे लिए अँजुरी भर हर कृति में लिए आते हैं कि आप बारबार उन कृतियों में प्रविष्ट होकर श्वास भरते हैं, सुगन्ध लेते हैं उस जीवन की जिसकी बाबत अब कोई बात तक नहीं करता। अनुभव करना तो दूर।


—तेजी ग्रोवर


प्रभात लोक-संवेदना को साभ्यतिक स्तर तक ले जाते हैं। उसे अपनी वैयक्तिक स्मृति से जोड़कर दिखाते हैं, परन्तु इस क़दर कि वे स्मृति को सामूहिकता से जोड़ देते हैं। उनकी स्मृति जन-स्मृति बन जाती है. और अनायास वे सांस्कृतिक स्मृति के कवि बन जाते हैं। स्मृतियों के इस उद्यान में पुष्प भी हैं और कंटकाकीर्ण परिपथ भी।


—संतोष अर्श


This collection overflows with everyday objects and dusty, yet vivid portraits of a people who have loved and lost, often in silence. Prabhat’s poems are striking in their quiet assertion of a humanity that is ever-present in our lives, though not often in our consciousness. Those who enjoy language itself, and the ways in which a poet can dig into his own soil for nourishment, will be especially rewarded.


−Annie Zaidi


You May Like