9788126727049
Rajkamal Prakashan 2018
Language: Hindi
208 Pages
Price INR 299.0 Not Available
बहैसियत अदबी भाषा उर्दू की ताक़त जिन कुछ लेखकों को पढ़ते हुए एक ठोस आकार की शक्ल में नमूदार होती है, उनमें इस्मत चुग़ताई को चोटी के कुछ नामों में शुमार किया जा सकता है। जहाँ तक ज़बान को इस्तेमाल करने के हुनर का सवाल है, बेदी और मंटो में भी वह महारत दिखाई नहीं देती जो उनमें दिखती है। बेदी कहानी को मूर्तिकार की सी सजगता से गढ़ते थे और मंटो की कहानी अपने समय के कैनवस पर अपना आकार ख़ुद लेती थी। लेकिन इस्मत की कहानी भाषा और भाषा में बिंधी हुई सदियों की मानव-संवेदना की चाशनी से इस तरह उठती है जैसे किसी खौलती हुई कड़ाही में, भाप को चीरकर कोई मुजस्समा उठ रहा हो।
इससे यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि इस्मत अपनी कहानी में कोई कलात्मक चमत्कार करती हैं, वह ज़िन्दगी से अपने सच्चे लगाव को कहानी का ज़रिया बनाती हैं और जिस शब्दावली का चयन उनकी ज़बान करती है, वह ख़ुद भी ज़िन्दगी से उनके इसी शदीद इश्क़ से तय होती है। सिर्फ़ कोई एक शब्द या कोई एक पद, और आपको अपनी आँखों के सामने पूरा एक दृश्य घटित होता दिखता है। ‘यह इतना बड़ा चीख़ता-चिंघाड़ता बम्बई’ —इस संग्रह की पहली ही कहानी में यह एक वाक्य आता है, और सच में बम्बई को किसी और तरह से चित्रित करने की ज़रूरत नहीं रह जाती। इसी बम्बई में सरला बेन हैं। ‘कभी किसी ने उन्हें हटकर रास्ता देने की ज़रूरत तक न महसूस की। लोग दनदनाते निकल जाते और वह आड़ी होकर दीवार से लग जातीं।’ एक कहानी का यह एक वाक्य क्या एक मानव जाति के एक प्रतिनिधि के बरसों का ख़ाका नहीं खींच देता।
यही हैं इस्मत चुग़ताई, जिन्हें यूँ ही लोग प्यार से आपा नहीं कहा करते थे। जिस मुहब्बत से वे अपने किरदारों और उनके दु:ख-सुख को पकड़ती थीं, वही उनके आपा बन जाने का सर्वमान्य आधार था। इस किताब में उनकी सत्रह एक से एक कहानियाँ शामिल हैं जिनमें प्रसिद्ध 'लिहाफ़' भी है। इसमें उन्होंने समलैंगिकता को उस वक़्त अपना विषय बनाया था जब समलैंगिकता के आज जवान हो चुके पैरोकार गर्भ में भी नहीं आए थे। और इतनी ख़ूबसूरती से इस विषय को पकड़ना तो शायद आज भी हमारे लिए मुमकिन नहीं है। उनकी सोच की ऊँचाई के बारे में जानने के लिए सिर्फ़ इसी को पढ़ लेना काफ़ी है।